दिक्कालाघनवच्छिन्नानन्त चिन्मात्र मूर्तये ।
स्वानु भूत्ये कमानायनम: शान्ताय तेजसे ।।
स्वानु भूत्ये कमानायनम: शान्ताय तेजसे ।।
भूतभावन श्री भगवान की प्रधान लीलाभूमि मानव योनि है, अत:एव प्रकृति ने मानव अन्त:करण को पूर्ण विकास युक्त एवं विवेकशक्तियुक्त बनाया है । फलत: मनुष्य अशेष गुणों का आगार, संसार का अलंकार , सृष्टि की पराकाष्ठा एवं प्राकृतिक रचना का मुकुट मणि है । मनुष्य के पालन, पोषण, संवर्धन, और संरक्षण के निमित्त प्राकृतिक रचना का मुकुटमणि है । मनुष्य के पालन, पोषण, संर्वधन और संरक्षण के निमित्त प्रकृति ने अपरिमित क्षिति, जल, नभ, पावक, पवनादि, देशकाल, ऋतु, आदि, शाक, फल, दुग्ध, अन्नादि, तथा मणि मन्त्र औषधि आदि की रचना करके उनके उपयोग का अधिकार मनुष्य को प्रदान कर दिया है । अपने इस अधिकार तथा शक्तिायो का सदुपयोग करके मनुष्य स्वस्थ एवं सुखी रह सकता है ,और दुरूपयोग करके अस्वस्थ एवं दुखी: हो सकता है यदि मनुष्य प्रकृति- प्रदत्त विवेक से युक्त होकर आचार आहार विहार करता है । तो सुखी रहता है यदि विवेक - भ्रष्ट होकर आचरण करता है । तो नि:संदेह दुख भोगता है । '' अवष्यमेंव भोक्तव्यं कृत कर्म शुभाशुभम्'' तथा '' काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निजकृत कर्म भोग सब भ्राता ।। आदि प्रसिद्ध उक्तियॉ इसी भाव का समर्थन करती है ।